ईष्टदेव ‘श्री १००८ पिंग्लीनाग जी’ - "शिखर" मन्दिर
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Egyarahpali, Shikhar
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ईष्टदेव ‘श्री पिंग्लीनाग जी’
सतयुग में ‘कालिया’ नामक एक मनुष्य ने अनेक ‘तप – साधनाओं’ के फलस्वरूप कुछ ‘दिव्य शक्तियां प्राप्त कर, ‘देवलोक’ में स्थान प्राप्त किया. ‘दिव्य शक्तियों’ से युक्त होने के कारण देवताओं ने इन्हें स्वर्ग के ‘एक क्षेत्र’ का राजा बना दिया. इनके मंत्री मंडल में ‘श्री पिंगलाचार्य’ राजगुरु (प्रधान मंत्री) थे.
देवलोक में ‘दिव्य शक्तियों’ के आश्चर्यजनक परिणामों से अविभूत हो कर ‘कालिया’ इन शक्तियों का उपयोग यत्र तत्र करने लगे. फलस्वरूप देवलोक की व्यवस्था बिगड़ने लगी. ‘श्री पिंगलाचार्य’ एवं देवताओं के समझाने पर भी वे मनमाने निर्णय ले कर व्यवस्था बिघ्नित कर मनोरंजन में लिप्त हो गए. ‘देवराज इंद्र’ ने इन्हें राज्य से निष्कासित करने की धमकी दे डाली. इस पर ‘कालिया’ क्रोधित हो कर ‘इंद्र’ पर अवांछित शब्दों का विषवमन करने लगे. देवराज इंद्र ने ‘देवर्षि नारद’ से इन्हें समझाने हेतु विनय की. इस पर ‘कालिया’ क्रोधित हो कर ‘देवर्षि नारद’ पर भी अवांछित शब्दों का विषवमन करने लगे. कुपित होकर कर ‘देवर्षि नारद’ ने इन्हें तुरंत श्राप दे डाला – “हे कालिया तुम्हें प्राप्त दिव्य शक्तियां प्रभावहीन हो जाय और तू ‘जहरीला विषधर’ की योनी ग्रहण कर मर्त्युलोक को प्राप्त होवे.”
‘कालिया’, श्राप का प्रभाव भांप सहम गया. भयातुर हो कर ‘देवर्षि नारद’ के चरणों में गिर, क्षमाँ याचना कर श्राप से उद्धार हेतु उपाय पूछने लगा. ‘देवर्षि नारद’ने भगवान् विष्णु की उपासना का उपाय बताया. कालिया ने भगवान् की उपासना करी. ‘भगवान् विष्णु’ ने द्रवित हो कर कहा – “हे कालिया, मर्त्युलोक में तेरे विष से प्राणीयों के व्यथित होने पर ‘द्वापर युग’ में जब ‘श्रीकृष्ण’ अवतार होगा तब तेरा उद्धार होगा.”
कहते है - सतयुग में राजा के श्रापित होने पर, सम्पूर्ण प्रजा भी श्रापित हो जाती थी..
‘कालिया’ अपने कुनवे सहित मर्त्युलोक को निर्वासित हो कर, विषधर नाग (कालीनाग) बन, मर्त्युलोक की नदियों को बिषाक्त करने लगा.
“श्रीमदभागवत’में एक सन्दर्भ आता है-द्वापर युग’ में जब ‘श्रीकृष्ण’ मथुरा में अवतरित हो कर, गोकुल में यमुना नदी किनारे, ग्वालों संग, बाल क्रीडा कर रहे थे, उनकी गेंद यमुना में जा गिरी. ‘बाल श्रीकृष्ण’ के, गेंद खोजने के दौरान यमुना में कालीनाग से आमना सामना हो गया. युद्ध में कालीनाग हारने लगा तो उसे ‘श्रीकृष्ण’ अवतार का प्रसंग याद आ गया. सपरिवार ‘श्रीकृष्ण’ के चरणों में गिर, भूल हेतु क्षमाँ याचना करने लगा. तब भगवान ‘श्रीकृष्ण’ ने उसको क्षमादान देते हुए श्राप मुक्त कर दिया. इसपर कालीनाग ने प्रार्थना की – हे प्रभु आपने श्राप मुक्त तो कर दिया, अब देवलोक में पुन: स्थान कैसे मिलेगा ? मर्त्युलोक में मेरे अनेक शत्रु जैसे ‘गरुड़’ आदि है. भगवान ‘श्रीकृष्ण’ने वरदान दिया – हे कालीनाग मर्त्युलोक में ही तुम्हें देवत्व प्राप्त होगा.
तुम उत्तर दिशा ‘उत्तराखंड’ के हिमालय की तलहटी में “रमणीक द्वीप” की पवित्र पहाड़ियों पर सपरिवार निर्भय हो कर निवास करो. जिस पर्वत पर तुम निवास करोगे वहां तुम्हारे शत्रु गरुड़ आदि का प्रवेश निषिद्ध होगा. इस पर कालीनाग बोले. भगवन मेरे परिवार का भरण पोषण कैसे होगा. तब भगवान् ‘श्रीकृष्ण’ बोले - “रमणीक द्वीप” के निवासियों को अपने ‘देवत्व’ एवं ‘दिव्य रूप’ में वहां आने की सूचना देना. वो लोग तुम्हारी स्थापना कर, पूजा करेंगे और “जो मनुष्य श्रद्धा भाव रखते हुए अंतर्मन से तुम्हारी पूजा / भक्ति करेगा वह मेरी भक्ति को प्राप्त होगा” अर्थात उसे मेरी भक्ति के फल प्राप्त होवेंगे.
‘कालीनाग’ दिव्यरूप प्राप्त कर “रमणीक द्वीप” के ‘रमणीक पर्वत’ पर आ बसे. उनके लावलस्कर के अन्य नाग – पिंगलीनाग, धौलीनाग, बेरीनाग, फनिनाग, वासुकिनाग एवं मूलनाग आदि निकटवर्ती पर्वत श्रंखलाओं में बस गए व स्थानीय निवासियों को ‘सपनों’ द्वारा सूचित कर अपनी अपनी स्थापनाऐ/पूजा करवाई.
‘कालिया’ राजपरिवार में गुरु पद प्राप्त ‘श्री पिंगलाचार्य’ अब “पिन्गलीनाग” थे. ये ‘रमणीक पर्वत’ के सामने दक्षणी पर्वत पर आये. तब इस इलाके - ग्याराह् पाली में ‘घंगौल’ नामक ब्राह्मण रहते थे. श्री “पिन्गलीनाग” जी ने उसे ‘सपने’ में अपने आने की सूचना दी. पंडित ‘घंगौल’ ने सपरिवार जाकर पर्वत ‘शिखर’ पर मंदिर निर्माण करवाकर बिधिवत पूजा, अर्चना संपन्न करवाई. तभी से सभी स्थानीय निवासियों द्वारा श्री हरि विष्णु स्वरुप ईष्ट देव रूप में ‘श्री पिंग्लीनाग जी’ बहुत ही आस्था व श्रद्धा से पूजे जाते आ रहे हैं.
पूजा,आराधना करते करते ईष्ट देव‘ श्री पिंग्लीनाग जी’ की कृपा से पंडित ‘घंगौल’ बहुत धनधान्य, ख्याति एवं वंश वृद्धि को प्राप्त हुये. ग्यारहपाली के नौ गाँव ‘घंगौलों’ से भर गयी. कालान्तर में उनकी ख्याति ‘नेपाल नरेश’(तत्कालीन उत्तराखंड, नेपाल नरेश के अधिपत्य में था) तक भी पहुची. फलस्वरूप ‘नेपाल नरेश’ ने ‘घंगौल’ को ‘रमणीक द्वीप’ (गंगावाली) का शासक (रियासती राजा ) घोषित किया. ( सरयू और पूर्वी रामगंगा का ये सम्पूर्ण दोआब तब ‘रमणीक द्वीप’ (गंगावाली) कहलाता था.)
कालान्तर में अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ, इलाके में ‘घंगौल’ के अलावा अनेक जाति/ लोगों की बसासत हुई. कई किम्वदंतिया प्रचलित हुई. ‘श्री पिंग्लीनाग जी’ की पूजा अर्चना तभी से अनवरत चली आ रही है और चलती रहेगी. सच्चे मन, श्रद्धा से अर्चना के शुभ फल हमेशा मिलते रहेंगे और सभी निवासियों का कल्याण होगा .. शुभ कामनाये...
( बुजुर्गों एवं स्व अध्ययन से प्राप्त जानकारी के आधार पर संकलित .)
कृपया अन्य कुछ और तत्थ्य हो तो जरुर शेयर करे ......धन्यवाद. .kewaljoshi@gmail.com
सतयुग में ‘कालिया’ नामक एक मनुष्य ने अनेक ‘तप – साधनाओं’ के फलस्वरूप कुछ ‘दिव्य शक्तियां प्राप्त कर, ‘देवलोक’ में स्थान प्राप्त किया. ‘दिव्य शक्तियों’ से युक्त होने के कारण देवताओं ने इन्हें स्वर्ग के ‘एक क्षेत्र’ का राजा बना दिया. इनके मंत्री मंडल में ‘श्री पिंगलाचार्य’ राजगुरु (प्रधान मंत्री) थे.
देवलोक में ‘दिव्य शक्तियों’ के आश्चर्यजनक परिणामों से अविभूत हो कर ‘कालिया’ इन शक्तियों का उपयोग यत्र तत्र करने लगे. फलस्वरूप देवलोक की व्यवस्था बिगड़ने लगी. ‘श्री पिंगलाचार्य’ एवं देवताओं के समझाने पर भी वे मनमाने निर्णय ले कर व्यवस्था बिघ्नित कर मनोरंजन में लिप्त हो गए. ‘देवराज इंद्र’ ने इन्हें राज्य से निष्कासित करने की धमकी दे डाली. इस पर ‘कालिया’ क्रोधित हो कर ‘इंद्र’ पर अवांछित शब्दों का विषवमन करने लगे. देवराज इंद्र ने ‘देवर्षि नारद’ से इन्हें समझाने हेतु विनय की. इस पर ‘कालिया’ क्रोधित हो कर ‘देवर्षि नारद’ पर भी अवांछित शब्दों का विषवमन करने लगे. कुपित होकर कर ‘देवर्षि नारद’ ने इन्हें तुरंत श्राप दे डाला – “हे कालिया तुम्हें प्राप्त दिव्य शक्तियां प्रभावहीन हो जाय और तू ‘जहरीला विषधर’ की योनी ग्रहण कर मर्त्युलोक को प्राप्त होवे.”
‘कालिया’, श्राप का प्रभाव भांप सहम गया. भयातुर हो कर ‘देवर्षि नारद’ के चरणों में गिर, क्षमाँ याचना कर श्राप से उद्धार हेतु उपाय पूछने लगा. ‘देवर्षि नारद’ने भगवान् विष्णु की उपासना का उपाय बताया. कालिया ने भगवान् की उपासना करी. ‘भगवान् विष्णु’ ने द्रवित हो कर कहा – “हे कालिया, मर्त्युलोक में तेरे विष से प्राणीयों के व्यथित होने पर ‘द्वापर युग’ में जब ‘श्रीकृष्ण’ अवतार होगा तब तेरा उद्धार होगा.”
कहते है - सतयुग में राजा के श्रापित होने पर, सम्पूर्ण प्रजा भी श्रापित हो जाती थी..
‘कालिया’ अपने कुनवे सहित मर्त्युलोक को निर्वासित हो कर, विषधर नाग (कालीनाग) बन, मर्त्युलोक की नदियों को बिषाक्त करने लगा.
“श्रीमदभागवत’में एक सन्दर्भ आता है-द्वापर युग’ में जब ‘श्रीकृष्ण’ मथुरा में अवतरित हो कर, गोकुल में यमुना नदी किनारे, ग्वालों संग, बाल क्रीडा कर रहे थे, उनकी गेंद यमुना में जा गिरी. ‘बाल श्रीकृष्ण’ के, गेंद खोजने के दौरान यमुना में कालीनाग से आमना सामना हो गया. युद्ध में कालीनाग हारने लगा तो उसे ‘श्रीकृष्ण’ अवतार का प्रसंग याद आ गया. सपरिवार ‘श्रीकृष्ण’ के चरणों में गिर, भूल हेतु क्षमाँ याचना करने लगा. तब भगवान ‘श्रीकृष्ण’ ने उसको क्षमादान देते हुए श्राप मुक्त कर दिया. इसपर कालीनाग ने प्रार्थना की – हे प्रभु आपने श्राप मुक्त तो कर दिया, अब देवलोक में पुन: स्थान कैसे मिलेगा ? मर्त्युलोक में मेरे अनेक शत्रु जैसे ‘गरुड़’ आदि है. भगवान ‘श्रीकृष्ण’ने वरदान दिया – हे कालीनाग मर्त्युलोक में ही तुम्हें देवत्व प्राप्त होगा.
तुम उत्तर दिशा ‘उत्तराखंड’ के हिमालय की तलहटी में “रमणीक द्वीप” की पवित्र पहाड़ियों पर सपरिवार निर्भय हो कर निवास करो. जिस पर्वत पर तुम निवास करोगे वहां तुम्हारे शत्रु गरुड़ आदि का प्रवेश निषिद्ध होगा. इस पर कालीनाग बोले. भगवन मेरे परिवार का भरण पोषण कैसे होगा. तब भगवान् ‘श्रीकृष्ण’ बोले - “रमणीक द्वीप” के निवासियों को अपने ‘देवत्व’ एवं ‘दिव्य रूप’ में वहां आने की सूचना देना. वो लोग तुम्हारी स्थापना कर, पूजा करेंगे और “जो मनुष्य श्रद्धा भाव रखते हुए अंतर्मन से तुम्हारी पूजा / भक्ति करेगा वह मेरी भक्ति को प्राप्त होगा” अर्थात उसे मेरी भक्ति के फल प्राप्त होवेंगे.
‘कालीनाग’ दिव्यरूप प्राप्त कर “रमणीक द्वीप” के ‘रमणीक पर्वत’ पर आ बसे. उनके लावलस्कर के अन्य नाग – पिंगलीनाग, धौलीनाग, बेरीनाग, फनिनाग, वासुकिनाग एवं मूलनाग आदि निकटवर्ती पर्वत श्रंखलाओं में बस गए व स्थानीय निवासियों को ‘सपनों’ द्वारा सूचित कर अपनी अपनी स्थापनाऐ/पूजा करवाई.
‘कालिया’ राजपरिवार में गुरु पद प्राप्त ‘श्री पिंगलाचार्य’ अब “पिन्गलीनाग” थे. ये ‘रमणीक पर्वत’ के सामने दक्षणी पर्वत पर आये. तब इस इलाके - ग्याराह् पाली में ‘घंगौल’ नामक ब्राह्मण रहते थे. श्री “पिन्गलीनाग” जी ने उसे ‘सपने’ में अपने आने की सूचना दी. पंडित ‘घंगौल’ ने सपरिवार जाकर पर्वत ‘शिखर’ पर मंदिर निर्माण करवाकर बिधिवत पूजा, अर्चना संपन्न करवाई. तभी से सभी स्थानीय निवासियों द्वारा श्री हरि विष्णु स्वरुप ईष्ट देव रूप में ‘श्री पिंग्लीनाग जी’ बहुत ही आस्था व श्रद्धा से पूजे जाते आ रहे हैं.
पूजा,आराधना करते करते ईष्ट देव‘ श्री पिंग्लीनाग जी’ की कृपा से पंडित ‘घंगौल’ बहुत धनधान्य, ख्याति एवं वंश वृद्धि को प्राप्त हुये. ग्यारहपाली के नौ गाँव ‘घंगौलों’ से भर गयी. कालान्तर में उनकी ख्याति ‘नेपाल नरेश’(तत्कालीन उत्तराखंड, नेपाल नरेश के अधिपत्य में था) तक भी पहुची. फलस्वरूप ‘नेपाल नरेश’ ने ‘घंगौल’ को ‘रमणीक द्वीप’ (गंगावाली) का शासक (रियासती राजा ) घोषित किया. ( सरयू और पूर्वी रामगंगा का ये सम्पूर्ण दोआब तब ‘रमणीक द्वीप’ (गंगावाली) कहलाता था.)
कालान्तर में अनेक मंदिरों का निर्माण हुआ, इलाके में ‘घंगौल’ के अलावा अनेक जाति/ लोगों की बसासत हुई. कई किम्वदंतिया प्रचलित हुई. ‘श्री पिंग्लीनाग जी’ की पूजा अर्चना तभी से अनवरत चली आ रही है और चलती रहेगी. सच्चे मन, श्रद्धा से अर्चना के शुभ फल हमेशा मिलते रहेंगे और सभी निवासियों का कल्याण होगा .. शुभ कामनाये...
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